सोमवार, 6 दिसंबर 2010

अपनी जिद हूँ, आप अड़ा हूँ


जाने क्यूं इस ज़िद पे अड़ा हूँ
अपने मुक़ाबिल आप खड़ा हूँ

चाँद रहा हूँ माँ की खातिर
यानी बनने में बिगड़ा हूँ

मैं अपने मन के कमरे में
जाने क्यूं बेहोश पड़ा हूँ

मैं ही भीष्म हूँ, मैं ही अर्जुन
मैं ही बन कर तीर गड़ा हूँ

दूर तलक उखड़ी है मिट्टी
मैं जब भी जड़ से उखड़ा हूँ

दिल में वो उतना ही आये
शहरों से जितना झगड़ा हूँ

“आतिश” मन की आंच बढ़ा लूं?
तुम कहते हो कच्चा घड़ा हूँ