बुधवार, 15 मई 2013

एक शह्र - नज़्म

सपाट चेहरों, उदास लोगों
से शह्र अपना बना हुआ है
यहाँ मैं बरसों से हूं मगर ख़ुद को इक अजनबी की तरह अकेला ही पा रहा हूं
यहाँ तो रस्ते तलक बचा के निगाह मुझसे निकल रहे हैं
कि जैसे मुझसे हुए मुख़ातिब तो खाइयों, खंदक़ों में फिसल पड़ेंगे,
इमारतें देखती हैं मुझको
कि जैसे मैं इश्तिहार हूँ एक फूहड़,
अनचाहा, सस्ता और भद्दा
कहीं नहीं हूँ नज़र में लोगों की आज भी मैं
बस इक ख़ला हूँ मैं उनकी ख़ातिर उग आये हैं हाथ पाँव जिसके
ख़लाओं को कोई नाम क्या दे?
सपाट चेहरों उदास लोगों
से शह्र अपना बना हुआ है
कभी भी हँसता न बोलता है
पड़ा ही रहता है एक अजगर की तरह जिसने
निगल ली हो भीड़ इक किसी दिन…!

3 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति.मन को छू गयी .आभार . कायरता की ओर बढ़ रहा आदमी ..

Unknown ने कहा…

भावपूर्ण रचना! बढियां!

-अभिजित (Reflections)

Majaal ने कहा…

जैसा की निदा फाजली साहब ने कहा है :

हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी ,
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी :)

लिखते रहिये ....