मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

एक ही ग़म तेरे जाने का रहा


एक ही ग़म तेरे जाने का रहा
एक दिन वो भी मगर जाता रहा
आज माँ का जी बहुत अच्छा रहा
आज दिन भर रेडियो बजता रहा
ख़ाब में खुलती रही खिड़की कोई
और उस खिड़की में वो आता रहा
लॉन में आया मुझे तेरा खयाल
मैं वहीं फिर देर तक बैठा रहा 
जह्न के कमरे में तेरा इक खयाल
रात भर जलता रहा बुझता रहा 
आख़िरश पीला ही पड़ना था अगर
दिल का कागज़ बेसबब सादा रहा 
एक नन्हा ख़ाब मेरी नींद में
पाँव उचकाकर तुझे छूता रहा 
इक उचटती सी नज़र उसकी लगी
और मैं बिखरा तो फिर बिखरा रहा

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

याद तुम्हारी शक्कर निकली


धूप के भीतर छुप कर निकली
तारीकी* सायों भर निकली

रात गिरी थी इक गड्ढे में
शाम का हाथ पकड़कर निकली

रोया..उससे मिलकर रोया
चाहत भेस बदल कर निकली

फूल तो फूलों सा होना था
तितली कैसी पत्थर निकली

सूत हैं घर के हर कोने में
मकड़ी पूरी बुनकर निकली

ताजादम होने को उदासी
लेकर ग़म का शॉवर निकली

ग़म के कितने चींटे आये
याद तुम्हारी शक्कर निकली

हिज्र की शब से घबराते थे
यार यही शब बेहतर निकली

जब भी चोर मिरे घर आये
एक हंसी ही ज़ेवर निकली

‘आतिश’ कुंदन रूह मिली है
उम्र की आग में जलकर निकली

*तारीकी - अँधेरा 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

उजाले पलटकर किधर जायेंगे


उजाले पलटकर किधर जायेंगे
फ़ज़ाओं में हर सू बिखर जायेंगे
 
यूँ ही ख़ाली-ख़ाली जो बीतेंगे दिन
तो हम इक उदासी से भर जायेंगे 

ख़ुदा तक पहुँचने की बाज़ीगरी?
ज़रा ध्यान टूटा कि मर जायेंगे
 
ये सब लोग जो नींद में है, अभी
कोई ख़ाब देखेंगे डर जायेंगे
 
कई दिन से मुझमे है इक शोर सा  
ख़मोशी से ये दिन गुज़र जायेंगे
 
यही जिस्म आया है ले कर इधर
इसी नाव से हम उधर जायेंगे
 
हमारा भी रस्ता उधर का ही है 
कहीं बीच में हम उतर जायेंगे
 
इस आवारगी को कहीं छोड़कर 
ये रस्ते किसी दिन तो घर जायेंगे
 
हम ‘आतिश’ हैं हमको नहीं कोई डर
जलाओगे तुम हम संवर जायेंगे

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

अपने ख़ाबों को इक दिन सजाते हुए


अपने ख़ाबों को इक दिन सजाते हुए
गिर पड़े चाँद-तारों को लाते हुए
एक पुल पर खड़ा शाम का आफ़ताब*
सबको तकता है बस आते जाते हुए
एक पत्थर मिरे सर पे आ कर लगा
कुछ फलों को शजर* से गिराते हुए
ए ग़ज़ल तेरी महफ़िल में पायी जगह
इक ग़लीचा बिछाते-उठाते हुए
सुब्ह इक गीत कानों में क्या पड़ गया
कट गया दिन वही गुनगुनाते हुए
ज़ात से अपनी ‘आतिश’ था ग़ाफ़िल बहुत
जल गया ख़ुद दिया इक जलाते हुए

आफ़ताब - सूर्य 
शजर - पेड़

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

ख़ाब मेरे घर बैठा है

नींद से कर बैठा है
ख़ाब मेरे घर बैठा है

अक्स मिरा आईने में
लेकर पत्थर बैठा है

एक बगूला* यादों का 
खा कर चक्कर बैठा है

उसकी नींदों पर इक ख़ाब
तितली बन कर बैठा है

रात की टेबल बुक करके 
चाँद डिनर पर बैठा है

जाता है बाहर भी
दिल में जो डर बैठा है

अँधियारा खामोशी से
ओढ़ के चादर बैठा है

आतिशधूप गयी कब की
घर में क्यूँ कर बैठा है?

बगूला - चक्रवात