गुरुवार, 30 मई 2013

ख़ुदकुशी से पहले

दरीचे बंद कर डाले हैं सारे
मगर बस इस क़दर कोई नज़ारा
नज़र आये न बाहर से
कोई झांके तो कुछ भी देख ना पाये
मगर थोड़ी जगह मिल जाये
मुट्ठी भर हवा को आने जाने की
न सुन पाये कोई भी शख्स ये आवाज़ गोली की
तो मर जाने पे जब ये जिस्म सड़ने पर तुला हो
हवा के हाथ लोगों तक ख़बर पहुंचे
लगा के कुण्डी भीतर से
रखी हैं मेज़ कुर्सी सामने दरवाज़े के मैंने
कि शक हो गर किसी को
कि मैं घर आज सिर्फ़ और सिर्फ़ मर जाने को लौटा हूं
तो वो भीतर न आ पायें
कम अज़ कम मेरे मरने तक
सो मैंने फ़ोन को भी एक लम्बी नींद दे दी है
पहुँच से सबकी बाहर
लबों पर उंगलियाँ रख कर पड़ा है..
है स्लो मोशन में अब ये वक़्त
मिरी साँसें भी भारी हो रही हैं
मैं नर्वस हो रहा हूँ
बस इक गोली जो हो सकती है सीधा सर के पार
कि फंस सकती है सर ही में, मेरे उलझे ख़यालों में
न इतना सोचता मैं तो
बहुत आसान था मरना
ये सारे इन्तिज़ाम
मुझमें इक शक इक नया डर ले के आये हैं
यही डर अब मुझे
लगता है मरने भी नहीं देगा..!

शुक्रवार, 24 मई 2013

शहरे-मुहब्बत

शहरे-मुहब्बत हम तन्हा हैं
नाम तुम्हारा सुना है हमने
रांझा-मजनूं के क़िस्सों में
और फ़रहाद के अफ़साने में
नक़्शे पर ढूँढा था तुमको..
नहीं मिले तुम
रांझे ने जब ज़हर चाट कर जाँ दे दी थी
तुमने भी क्या चुपके चुपके ज़ह्र खा लिया?
आह किसी ने सुनी तुम्हारी ?
या यूं ही बेनाम मरे तुम ?
मजनूं के पीछे पीछे सहराओं में चले गये क्या
सहराओं के ये सराब तुम ही तो नहीं हो ?
तोड़ा था फरहाद ने जब पत्थर का सीना
हांफ हांफ कर तुम क्या साँसें छोड़ चुके थे ?
शहरे-मुहब्बत.. बोलो कहीं से.. तुम ज़िंदा हो ?
शहरे-मुहब्बत.. शहरे-मुहब्बत… !
लोगों से इस भरे शह्र में
सचमुच हम बिल्कुल तनहा हैं…!

शनिवार, 18 मई 2013

फ़ुर्सत


बंद कमरा, मेरे माज़ी का
खुला है आज बरसों बाद
इस पुराने बंद कमरे की हवा
कब की पुरानी पड़ चुकी है
एक इक लम्हे पे दीमक लग चुकी है अब यहाँ
और हर इक याद पर
सीलन लगी है..
सोचता हूँ आज उसको
फोन कर लूँ
इस तरह कमरे की हर शय को
दिखा दूं धूप मैं..

शुक्रवार, 17 मई 2013

लफ्ज़ मुशायरा

लफ्ज़ का यह मुशायरा पिछले साल जाड़ों में हुआ था... इधर फिर से ब्लॉग पर सक्रिय  हुआ तो सोचा आप लोगों से शेयर किया जाय... 

बुधवार, 15 मई 2013

एक शह्र - नज़्म

सपाट चेहरों, उदास लोगों
से शह्र अपना बना हुआ है
यहाँ मैं बरसों से हूं मगर ख़ुद को इक अजनबी की तरह अकेला ही पा रहा हूं
यहाँ तो रस्ते तलक बचा के निगाह मुझसे निकल रहे हैं
कि जैसे मुझसे हुए मुख़ातिब तो खाइयों, खंदक़ों में फिसल पड़ेंगे,
इमारतें देखती हैं मुझको
कि जैसे मैं इश्तिहार हूँ एक फूहड़,
अनचाहा, सस्ता और भद्दा
कहीं नहीं हूँ नज़र में लोगों की आज भी मैं
बस इक ख़ला हूँ मैं उनकी ख़ातिर उग आये हैं हाथ पाँव जिसके
ख़लाओं को कोई नाम क्या दे?
सपाट चेहरों उदास लोगों
से शह्र अपना बना हुआ है
कभी भी हँसता न बोलता है
पड़ा ही रहता है एक अजगर की तरह जिसने
निगल ली हो भीड़ इक किसी दिन…!