रविवार, 21 अप्रैल 2013

उजाले पलटकर किधर जायेंगे


उजाले पलटकर किधर जायेंगे
फ़ज़ाओं में हर सू बिखर जायेंगे
 
यूँ ही ख़ाली-ख़ाली जो बीतेंगे दिन
तो हम इक उदासी से भर जायेंगे 

ख़ुदा तक पहुँचने की बाज़ीगरी?
ज़रा ध्यान टूटा कि मर जायेंगे
 
ये सब लोग जो नींद में है, अभी
कोई ख़ाब देखेंगे डर जायेंगे
 
कई दिन से मुझमे है इक शोर सा  
ख़मोशी से ये दिन गुज़र जायेंगे
 
यही जिस्म आया है ले कर इधर
इसी नाव से हम उधर जायेंगे
 
हमारा भी रस्ता उधर का ही है 
कहीं बीच में हम उतर जायेंगे
 
इस आवारगी को कहीं छोड़कर 
ये रस्ते किसी दिन तो घर जायेंगे
 
हम ‘आतिश’ हैं हमको नहीं कोई डर
जलाओगे तुम हम संवर जायेंगे

8 टिप्‍पणियां:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

बहुत खूबसूरत गज़ल..

यही जिस्म आया है ले कर इधर
इसी नाव से हम उधर जायेंगे

मेरे करीब!!

Shalini kaushik ने कहा…

ख़ुदा तक पहुँचने की बाज़ीगरी?
ज़रा ध्यान टूटा कि मर जायेंगे
bahut sundar bhavabhivyakti.badhai swapnil ji.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत खूबसूरत गज़ल

Smart Indian ने कहा…

वाह!

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

बहुत खूबसूरत हैं सारे अशआर ..
पता नहीं क्यूँ मुझे अपनी लिखी हुई एक रचना याद आ गयी ..
नज़र भर के देख लो हम सँवर जायेंगे
ऐसा ही था कुछ।

Shah Nawaz ने कहा…

वाह... बेहद खुबसूरत!

शारदा अरोरा ने कहा…

वाह सुन्दर ग़ज़ल

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह स्वप्निल जी वाह
हमेशा की तरह शानदार गज़ल
आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)