दर्शन ऑफिस से निकलने
ही वाला था कि उसे रात में पढ़ा हुआ निदा फाजली का शेर याद आया, जिसे उसने अपना
फेसबुक स्टेटस बना लिया। ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी/ जिसको
भी देखना हो कई बार देखना।’ यही था वो शेर। उसने बस स्टेटस लगाया ही था और चाहता
था कि बस दो चार टिप्पणियाँ तुरंत आ जाएँ। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उसने सोचा कि अब तो
घर पहुँच कर ही एक साथ सारी टिप्पणियाँ पढ़ी जायेंगी।
शाम हो
चुकी थी और दर्शन को जल्दी से जल्दी घर पहुंचना था। इसलिए नहीं कि घर पे
उसका कोई इंतज़ार कर रहा था बल्कि इसलिए कि घर घर होता है और वहाँ आदमी को शाम को
जाना ही चाहिए अन्यथा जीवन में आवारगी की सम्भावना बढ़ जाती है। और दर्शन के जीवन दर्शन में आवारगी के लिए कोई
स्थान नहीं था। घर तक जाने के लिए उसे कई पापड़ बेलने पड़ते थे। पहले उसे एक मेट्रो
स्टेशन आना पड़ता था, पहली मेट्रो पकडनी पड़ती
थी,
फिर दूसरी मेट्रो और
उसके बाद ऑटो से वो घर पहुँचता था। पिछले कई महीने वो
बेरोज़गार हो कर घर बैठा था, जिस वजह से उसका पेट
निकल आया था। इसलिए उसने निश्चय
किया था कि ऑफिस आते-जाते हुए, ऑफिस से मेट्रो स्टेशन
की 15-20 मिनट की दूरी को वो पैदल ही तय करेगा जिससे उसका मोटापा भी नियंत्रित हो
जायेगा और पैसे भी बचेंगे। इसी सोच के तहत वह आज
भी पैदल ही निकल पड़ा था। पैदल चलते हुए बीच बीच में वह अपने पेट पर हाथ फेर
रहा था। आप अगर उसे ऐसा करते हुए
देखेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे किसी बच्चे नें कहीं कोई सिक्का बो दिया और बार बार उसे
खोद कर देख रहा हो कि अंकुर फूटा या नहीं। लेकिन उसके पेट में सिक्के या किसी
दूसरी तरह के किसी अंकुर के फूटने की सम्भावना नहीं थी बल्कि वह अपने पेट पर बार
बार हाथ फेरकर इस बात का पता लगाने की
कोशिश कर रहा था कि उसका पेट कुछ कम हुआ है या नहीं। कभी उसे लगता की जैसे
इस देश में फैले भ्रष्टाचार पर छोटे मोटे इन अनशनों और आंदोलनों का कोई असर नहीं
होता वैसे ही उसके पेट पर भी इस 15-20 मिनट के टहलने का कोई प्रभाव नहीं है। कभी
कभी उसे लगता कि थोड़ा तो कम हुआ ही है उसका पेट, आखिर इतने
दिन से वो रोज़ पैदल जो चल रहा है, लेकिन यह ख़याल उसके दिमाग
में किसी बोरियत से भरी फिल्म के बीच में मनोरंजक विज्ञापन की तरह आता था जो बहुत
क्षणिक था।
इन्हीं बातों में उलझा हुआ वो चल रहा था कि
उसे अपने सामने लगभग 20 मीटर की दूरी पर एक लड़की दिखाई दी। उस लड़की के चलने का
तरीका उसे बहुत परिचित सा लग रहा था और उसे ऐसा महसूस हो रहा
था कि उसने कई बार इस चाल के साथ अपनी चाल भी मिलायी हुई है। बहुत देर तक उसने चलते
हुए उन पैरों को देखा, उनकी लय को पहचानने की कोशिश की और आखिरकार उसे याद
आ गया कि ठीक इसी तरह उसकी पहली प्रेमिका चला करती थी। नहीं पहली नहीं, दूसरी। और यहाँ सम्भावना भी
दूसरी प्रेमिका के होने की ही हो सकती थी क्यूंकि पहली प्रेमिका दिल्ली से बहुत
दूर बिहार के एक गाँव में थी और दूसरी प्रेमिका रेशम दिल्ली के पड़ोस के ही एक शहर
में रहती थी। उसे याद आया कि रेशम यानि उसकी दूसरी प्रेमिका का
पहला प्रेमी सी ग्रेड फिल्मों
का मुख्य अभिनेता बन चुका था। हालाँकि रेशम नें अपने पहले प्रेमी को छोड़ा भी इसीलिए था क्यूंकि सी ग्रेड
में फिल्मों में वह अपने प्रेमी को दूसरी लड़कियों के साथ लगभग नहीं के बराबर कपड़ों
में प्रेम दृश्यों में नहीं देख सकती थी। जबकि उसके उस प्रेमी नें वो फ़िल्में उसी के दबाव के कारण की थीं। रेशम नें इस बार लेखक
प्रेमी दर्शन को पकड़ा क्यूंकि लेखक चाहे सी ग्रेड फिल्मों के लिए लिखे लेकिन उसका
उन लड़कियों के साथ प्रेम दृश्यों में अभिनय करना असंभव था। अब वह चाहती थी कि दर्शन भी जल्दी से जल्दी
फिल्मों में पटकथाएं और संवाद लिखने लगे, उसे उन फिल्मों के
ग्रेड से कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसे सिर्फ अपना भविष्य सुरक्षित करना था। लेकिन दर्शन के भीतर का लेखक चाह कर भी यह
समझौता नहीं कर पाया। जब
रेशम को यह लगा कि दर्शन के साथ उसका कोई भविष्य नहीं है तो उसने उसे छोड़ दिया और उभरते हुए एक
संगीत निर्देशक के साथ जुड़ गयी जिसने बाद में उसके पहले प्रेमी की फिल्मों में
संगीत देना शुरू कर दिया। रेशम, सचमुच रेशम ही थी और उसे इंसान ने नहीं पैदा किया होगा बल्कि शहतूत के
किसी पेड़ पर रेशम के कीड़े ने बुना होगा। वह सोच रहा था कि अगर उसके आगे चलती हुई वो लड़की उसकी दूसरी प्रेमिका रेशम
ही है तो वह उसे जी भर के गालियाँ देगा जो वर्षों से उसके मन में दबी रहकर एक
खजाने में बदल चुकी हैं। अब
उसे इंतज़ार था उस लड़की का चेहरा देखने का ताकि गालियाँ देने से पहले उसे यह भरोसा
हो जाये कि सामने वाली लड़की रेशम ही है। यही सब सोचते-सोचते उसकी नज़र उसके पैरों की सैंडल पर गयी जो बहुत ऊँची हील
वाली थी और उसकी दूसरी प्रेमिका ऊँची हील वाली चप्पलें नहीं पहनती थी क्यूंकि उससे
उसकी कमर में दर्द होने लगता था। अब उसने उसका चेहरा देखे बिना ही यह निश्चित कर लिया था कि सामने चलने
वाली लड़की उसकी प्रेमिका नहीं है।
सामने चलने वाली लड़की उसकी प्रेमिका नहीं है
यह निश्चित हो जाने के बावजूद वो उसका चेहरा देखना चाहता था। उसे अब भी यह जानना था कि बहुत ही परिचित
तरीके से चलने वाली यह लड़की आखिर है कौन?
उसने अपना ध्यान उसकी चाल से हटाया और उस लड़की में
कुछ और आदतों की पहचान करने में लग गया ताकि वह यह उस लड़की के बारे में कुछ और
अंदाज़ा लगा सके। इसी क्रम में उसने देखा कि वो अपनी गर्दन को बायीं तरफ ज़रा सा झुका कर चल रही है। बाईं तरफ गर्दन झुककर
तो उसके पहले वाले मकान के पड़ोस में रहने वाली लड़की भी चला करती थी। उस लड़की का गर्दन
टेढ़ा करके चलना उसे बिलकुल पसंद नहीं था। उसे लगता था कि इस तरह गर्दन टेढ़ी करके
चलने से व्यक्ति में एक स्वाभाविक अकड़ विकसित हो जाती है। वह स्वाभाविक अकड़ उसे उस लड़की में तब
दिखी, जब दिल्ली शहर के किसी कोने में बसे उस गाँव में उस लड़की की प्रेम कहानी
सबके सामने आई। इस कहानी का सबके सामने
आना किसी रहस्य के खुलने जैसा नहीं था बल्कि किसी शरीर में किसी कीटाणु के प्रवेश
जैसा था, शरीर का प्रतिरोधक तंत्र जिसका पूरा विरोध कर रहा
हो। उसे कई तरीके से कई बार समझाने की कोशिश की गयी कि
वह उस दूसरी जाति के लड़के से मिलना जुलना छोड़ दे लेकिन गर्दन टेढ़ी करके चलने वाली
एक स्वाभाविक अकड़ से युक्त उस लड़की नें उन लोगों की कोई बात नहीं सुनी। इसी बात पर एक दिन उसके
बाप नें घर से बाहर निकल कर उसे पीटा भी,
लेकिन वह उस लड़के को भूलने की बजाय अगली सुबह उसके
साथ भाग गयी। उन
दिनों उस गाँव में दर्शन नें एक बहुत तेज आवाज़ की फुसफुसाहट में यह भी सुना कि उन
दोनों को ढूँढा जा रहा है और पकड़े जाने पर मार दिया जाएगा। उस लड़की का और उसके दूसरी जाति वाले प्रेमी
का आगे क्या हुआ दर्शन यह नहीं जान पाया क्योंकि नौकरी के चक्कर में उसे नोएडा
जाना पड़ गया था। इस
वक़्त दर्शन पूरे मन से चाहता था कि सामने लगभग 15 मीटर की दूरी पर चलती हुई ये लड़की
वही हो ताकि उसे भरोसा हो सके कि वह अपनी पूरी अकड़ के साथ जिन्दा है। लेकिन सामने वाली लड़की
का वह लड़की होना संभव नहीं था क्यूंकि सामने चलने वाली लड़की अपने पहनावे ओढ़ावे से
एक संपन्न परिवार की लग रही थी और वो लड़की एक गरीब परिवार से थी।
वह अभी उस गाँव वाली
लड़की की सोचों से बाहर भी नहीं निकला था कि उसने देखा कि सामने वाली लड़की जो अब
लगभग सिर्फ 7-8 मीटर की दूरी पर थी, पर एक कुत्ता भौंकने
लगा। उसे उम्मीद हो गयी कि
यह लड़की अब कुत्ते से डर कर पीछे भागेगी और वह उसका चेहरा देखकर अपनी सारी शंकाएं
मिटा लेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वह लड़की एक पल को रुकी
और उसने झुककर जमीन पर पड़ी एक ईंट उठाकर कुत्ते की तरफ उछाल दिया। कुत्ता डर कर भाग गया और इसी के साथ एक घटना की याद
ने उसके शरीर में एक मीठी गुदगुदी की लहर दौड़ा दी। तब दर्शन 12 साल का था और छुटकी 8 साल की थी। छुटकी उसके पड़ोस में रहने वाली लड़की थी जो उसी के साथ स्कूल जाती थी। पैदल जाते हुए रास्ते में एक कुत्ता मिलता था जो
अक्सर इन दोनों पर भौंकने लगता था और जब दर्शन को डर लगता था तो छुटकी बस एक पत्थर
का टुकड़ा उठा कर उससे कुत्ते को डरा देती थी और कुत्ता वहाँ से भाग
जाता था। 8 साल की छुटकी 12 साल
के लड़के के रक्षक की भूमिका में थी। स्कूल के ही दिनों की
घटना है। उन दिनों रोज़ लंच के
वक़्त दर्शन के बस्ते से उसकी पेंसिल गायब हो जाती थी और दर्शन उसके लिए घर पे रोज़ डाँट खाता था। दर्शन एक दिन लंच के
समय क्लास में ही छिप गया और चोर उसके बस्ते से पेन्सिल निकालता हुआ पकड़ा गया जो
दर्शन से से एक या दो आगे की क्लास में पढ़ता था। खूब घमासान हुआ दर्शन और उस पेंसिल चोर के बीच में और चोर ने उसकी खूब
पिटाई की थी। ऐसी खबरों को स्कूल, कालेजों में तो पंख लग जाते हैं। यह खबर भी उड़ते उड़ते
छुटकी के पास पहुंची और जाने किधर से आकर उसने पेंसिल चोर के हाथों में अपने दांत
गड़ा दिए। वो दर्द से दोहरा हो
गया। इस तरह जहाँ- जहाँ
संभव हो सकता था छुटकी उसकी रक्षा करने सामने
आ जाती थी। गाँव के लोग जब दर्शन
को चिढ़ाते थे कि उसकी शादी जिस लड़की से तय हुई है वो बबूल के जंगलों में रहती है
तो वो कह उठता, ‘हट...मैं तो छुटकी से ही शादी करूँगा.!’ जैसा
कि बचपन की प्रेम कहानियों में होता है, छुटकी का परिवार बम्बई
चला गया। यही सब सोचते सोचते वह
मुस्कुरा रहा था। इस वक़्त उसे सामने और
उसके बहुत करीब चलने वाली लड़की से बहुत मोह हो गया था। वह सोच रहा था कि अगर सामने वाली लड़की छुटकी होगी
तो ज़रूर उसकी नाक के बगल में तिल होगा, जिसके बारे में पूछने
पर वो बताती थी कि एक दिन सोते वक़्त एक कौवे नें उसकी नाक के बगल में चोंच मार दी
थी तभी से वहाँ वह तिल है।
वह
यही सब सोच रहा था कि मेट्रो स्टेशन आ गया। इस मेट्रो स्टेशन के
प्लेटफोर्म पर जहाँ सीढियां निकलती हैं उसके बाईं तरफ मेट्रो ट्रेन
का महिलाओं वाला डिब्बा
लगता है और दायीं तरफ बाकी सामान्य डिब्बे। वह लड़की महिलाओं वाले
डिब्बे की तरफ चली गयी लेकिन दर्शन को सामान्य डिब्बे की तरफ मुड़ना पड़ा। वह बहुत शिद्दत से उस लड़की का चेहरा देखना चाहता था
वह चाहता तो उधर जा सकता था, किसी तरह उसका चेहरा
देख सकता था। लेकिन वह ऐसा नहीं प्रतीत होने देना चाहता था कि वह
उसका पीछा कर रहा है या उस लड़की में उसकी कोई रूचि है, साथ ही एक अनजाने किस्म का डर भी था। इससे पहले कि लड़की प्लेटफार्म पर टहलते हुए किसी
तरह उसकी तरफ मुड़ती, मेट्रो आ गयी और लड़की
महिलाओं वाले डिब्बे में चली गयी। वह भी महिलाओं के
डिब्बे के ठीक बगल वाले डिब्बे में चढ़ा और दरवाज़े के पास खड़ा रहा। वह हर स्टेशन पर दरवाज़ा खुलते ही बाहर झांकता ताकि
अगर लड़की अपने डिब्बे से बाहर निकले तो वह उसका चेहरा देख सके। कई स्टेशन गुजरने के बाद आख़िरकार जब लड़की डिब्बे से
बाहर निकली तो उसने उस लड़की का चेहरा देख लिया जो उससे पूरी तरह अपरिचित था। उसने जितने भी लोगों के अंश उसकी चाल ढाल, व्यवहार और गर्दन टेढ़ा
रखने की आदत में देखे थे, उन लोगों के चेहरे का
कोई भी हिस्सा उस लड़की के चेहरे में नहीं था। लड़की जा चुकी थी और वह निश्चिन्त हो चुका था। लेकिन फिर थोड़ी देर बाद वह बेवकूफी पर हंस रहा था।
इस
मेट्रो की यात्रा ख़त्म होने के बाद वह दूसरी मेट्रो में चढ़ा और एक सहयात्री के
बच्चे को अलग अलग तरह से चेहरे बना कर चिढ़ाने की कोशिश करता रहा। पिता के कंधे पर चेहरा
टिकाये वह बच्चा बहुत देर तक उसको भाव शून्य हो कर देखता रहा और जब उसे लगा कि यह
सामने वाला व्यक्ति चिढ़ाने में अपनी सीमा को पार कर रहा तो बच्चे नें उसके ऊपर थूक
दिया। दर्शन एक दम से गुस्सा हो
गया,
लेकिन बच्चे को वही चिढ़ा रहा
था इसलिए कुछ कह नहीं सकता था। किसी तरह मेट्रो की यात्रा
ख़त्म हुई और वह ‘शेयरिंग वाले ऑटो’ में उसकी 'विंडो सीट' के पास ड्राईवर के पीठ
की तरफ पीठ करके बैठ गया। तभी ठीक उस सीट के बगल
वाली खिड़की के पास से एक आदमी बहुत तेज़ी से गुज़रा, दर्शन उसके चेहरे की बस
एक झलक भर देख पाया। उसे लगा कि उसकी शक्ल
देखी भाली है। उसने गर्दन निकाल कर
उस जाते हुए आदमी को देखना चाहा लेकिन उसकी शक्ल नहीं दिखाई दी। वह दूसरा आदमी उसके
आगे वाले ऑटो में जा कर बैठ गया। दर्शन ने एक झलक में
उसके चेहरे का जितना हिस्सा देखा था उसे ऐसा लग रहा था जैसे कि वह आदमी उसका कोई
पुराना पड़ोसी था। दर्शन जिस ऑटो में
बैठा था वह ऑटो चल दिया और उस दूसरे ऑटो के बगल से गुज़रा लेकिन दूसरे ऑटो में चढ़ते-उतरते लोगों
की वजह से इस बार भी उसे आदमी के चेहरे की एक हल्की झलक भर ही मिली। इस बार उसे लगा कि वह
आदमी शायद कभी उसका सहपाठी था। और
इसी सोच में दर्शन का घर तक का सफर पूरा हुआ। घर पहुँचते ही दर्शन नें सबसे पहले
अपना लैपटॉप खोला और अपने स्टेटस पे आई टिपण्णी देखीं जिसमें उसकी एक दोस्त कोमल
नें लिखा था ‘सच ही तो कहा है निदा फाजली नें। ‘अगर देखा जाये
तो हर आदमी थोड़ा थोड़ा कई आदमियों में मिल सकता है या एक आदमी बहुत से आदमियों का
कोलाज हो सकता है।’ और दर्शन रास्ते में मिली उसी लड़की को याद करके मुस्कुराने लगा।
3 टिप्पणियां:
wo ladki.... aise kitne lamhe hamare saath guzarte hai..par unko ham tabhi pakad paate hai jab ham sirf hamare saath hote hai...badhiyaa
acchi lagi :)pichli wali se jyada acchi. ek aadmi mein hote hain dus bees aadmi :)
आपका ये अंदाज़ भी गज़ब है ... अलग सी कहानी ... लीक से हट के ...
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