मंगलवार, 8 मई 2012

क्या बताएं ग़म के मौसम की तुम्हें


क्या बताएं ग़म के मौसम की तुम्हें
बारहा रहती है इक जल्दी तुम्हें

तुम कहाँ के फूल हो जो रोज़ ही
पूछती रहती है इक तितली तुम्हें

याद आते हैं मुझे ताने सभी
याद आती है मेरी झिड़की तुम्हें?

भेज दो यादों में अपनी खुशबुएँ
मिल गयी होगी मेरी अर्ज़ी तुम्हें

नम हुई होगी मेरी यादों की राख
इसलिए बारिश लगी सौंधी तुम्हें

झांकती रहती थी इस खिड़की से तुम
ढूंढती रहती है अब खिड़की तुम्हें

दिल के सहरा में बहा करती थी जो
याद कुछ आती है वो नद्दी तुम्हें?

आज ‘आतिश’ दूर क्यूँ बैठे हो तुम?
आग लगती थी बहुत अच्छी तुम्हें

7 टिप्‍पणियां:

sonal ने कहा…

हमारा इंतज़ार इतनी मीठी रचना से ख़त्म करने के लिए शुक्रिया ....
याद आते हैं मुझे ताने सभी
याद आती है मेरी झिड़की तुम्हें... वाह

दिगम्बर नासवा ने कहा…

झांकती रहती थी इस खिड़की से तुम
ढूंढती रहती है अब खिड़की तुम्हें ...

गज़ब का ख्याल बुना है आपने ... हर वो चीज़ तलाशती है ... पूरी गज़ल एहसास लिए ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

भेज दो यादों में अपनी खुशबुएँ
मिल गयी होगी मेरी अर्ज़ी तुम्हें

नम हुई होगी मेरी यादों की राख
इसलिए बारिश लगी सौंधी तुम्हें

बहुत सुंदर ....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

आज पहली बार तुम्हारी गज़ल पढते हुए लफ़्ज़ों से ज़्यादा मौसिकी का ख्याल आया और सबसे ज़्यादा आये अपने जग्गू दादा!! मैं हर शेर पर बस उनकी आवाज़ के जादू में गुम होता जा रहा था, तसव्वुर में ही सही..
इस गज़ल की रूमानियत और सादाबयानी का मज़ा गायकी में है..!! दिल्ली की इस गरमी में यह गज़ल सोंधी सोंधी खुशबू और सर्द हवा के झोंके की तरह है!!

shikha varshney ने कहा…

झांकती रहती थी इस खिड़की से तुम
ढूंढती रहती है अब खिड़की तुम्हें
बेचारी खिडकी:( ये ब्लॉग की खिडकी भी तुम्हें ढूंढ रही थी.
बहुत सुन्दर गज़ल.

dr.mahendrag ने कहा…

नम हुई होगी मेरी यादों की राख
इसलिए बारिश लगी सौंधी तुम्हें
लिखने का बहुत ही सुन्दर अंदाज,

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत अच्छी गज़ल...सुंदर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...