हँस के बीमार कर दिया देखो,
तुमने अच्छी भली उदासी को
बाद मुद्दत चमन में आया हूँ,
मेरे फूलों, बताओ कैसे हो ?
कैसे कैसे हसीन मंज़र थे,
आखिरश हिज्र खा गया सबको।
घर के झगडे न लांघ पाए इसे
घर की दीवार इतनी ऊँची हो
रौशनाई न दिल की सूखे अब
इस सुनहरे कलम से कुछ लिक्खो
रास्ता कच्ची नींद जैसा है
ख़ाब की तरह चुपके चुपके चलो
क्यूँ हो आवारगी में कोई पड़ाव
इस समंदर में क्यूँ जज़ीरा हो
हुक्म देती हुई वो आँखे, उफ़!
उनका सारा कहा, हुआ मानो
दर्द की आँच दिल में है “आतिश”,
साँस जलने लगी है कम कर दो
5 टिप्पणियां:
वाह स्वप्निल , गजब कहते हो यार तुम . तुम्हारी ग़ज़लों की प्रतीक्षा रहती है . उम्दा कहा है बधाई.
कभी कभी तुम्हारे पैर छूने को जी चाहता है!!
दर्द की आँच दिल में है “आतिश”,
साँस जलने लगी है कम कर दो
बाप रे ...जाने क्या क्या लिख जाते हो.
बहुत खूब.... आपके इस पोस्ट की चर्चा आज ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित होगी... धन्यवाद.... अपनी राय अवश्य दें...
वाह! बहुत दिन बाद...ना, बहुत अधिक दिनों बाद :)
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