शनिवार, 13 अप्रैल 2013

अपने ख़ाबों को इक दिन सजाते हुए


अपने ख़ाबों को इक दिन सजाते हुए
गिर पड़े चाँद-तारों को लाते हुए
एक पुल पर खड़ा शाम का आफ़ताब*
सबको तकता है बस आते जाते हुए
एक पत्थर मिरे सर पे आ कर लगा
कुछ फलों को शजर* से गिराते हुए
ए ग़ज़ल तेरी महफ़िल में पायी जगह
इक ग़लीचा बिछाते-उठाते हुए
सुब्ह इक गीत कानों में क्या पड़ गया
कट गया दिन वही गुनगुनाते हुए
ज़ात से अपनी ‘आतिश’ था ग़ाफ़िल बहुत
जल गया ख़ुद दिया इक जलाते हुए

आफ़ताब - सूर्य 
शजर - पेड़

2 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन ग़ज़ल! हर शेर दमदार। ...वाह!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सुब्ह इक गीत कानों में क्या पड़ गया
कट गया दिन वही गुनगुनाते हुए