धूप के भीतर छुप कर निकली
तारीकी* सायों भर निकली
रात गिरी थी इक गड्ढे में
शाम का हाथ पकड़कर निकली
रोया..उससे मिलकर रोया
चाहत भेस बदल कर निकली
फूल तो फूलों सा होना था
तितली कैसी पत्थर निकली
सूत हैं घर के हर कोने में
मकड़ी पूरी बुनकर निकली
ताजादम होने को उदासी
लेकर ग़म का शॉवर निकली
ग़म के कितने चींटे आये
याद तुम्हारी शक्कर निकली
हिज्र की शब से घबराते थे
यार यही शब बेहतर निकली
जब भी चोर मिरे घर आये
एक हंसी ही ज़ेवर निकली
‘आतिश’ कुंदन रूह मिली है
उम्र की आग में जलकर निकली
*तारीकी - अँधेरा
*तारीकी - अँधेरा
6 टिप्पणियां:
काफी दिनों के बाद लिखा पर,
शायरी कलम से जम कर निकली :)
बहुत अच्छे … लिखते रहिये ...
बहुत सुंदर ....
बहुत सुंदर। बधाई।
............
एक विनम्र निवेदन: प्लीज़ वोट करें, सपोर्ट करें!
ताजादम होने को उदासी
लेकर ग़म का शॉवर निकली
ग़म के कितने चींटे आये
याद तुम्हारी शक्कर निकली
वाह ........ बेहतरीन
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल
kya baat hai :)
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