शनिवार, 31 अगस्त 2013

प्रिज़्म और पिरामिड


प्रिज़्म में इक उदासी भरी
दुबली-पतली किरन, ऐसे दाख़िल हुई
जैसे बाहर न आयेगी अब
प्रिज़्म दिखने में तो इक पिरामिड सा ही होता है
रौशनी का बदन लेकिन ऐसा नहीं
बना कर ममी जिसको रक्खे वहाँ..
प्रिज़्म के सब फलक कोशिशें कर के भी
जब बना ही न पाये किरन को ममी
तो वो हंसने लगी और
हँसते हुए अपनी सतरंगी चादर हवा में उड़ाने लगी...

बुधवार, 28 अगस्त 2013

हमेशा ही मुझको रही हड़बड़ी/ ہمیشہ ہی مجھ کو رہی ہڑبڑی-ghazal

हमेशा ही मुझको रही हड़बड़ी
कहीं पर्स छूटा कहीं पर घडी

कभी वक़्त भी बाँध पाऊँ यूँ ही
कलाई पे बाँधी है जैसे घड़ी

तिरी याद के एक झोंके से फिर
मिरी नींद आँखों कि छत से उड़ी

कि दरिया समंदर का क़ैदी हुआ 
रवानी ही इसकी बनी हथकड़ी

दिसंबर के जैसा तिरा हिज्र है 
हुए छोटे दिन और रातें बड़ी 

सहारा फक़त अपने साये का था 
सही धूप हमने कड़ी से कड़ी

टहलता रहा दिल के कमरे दुःख
बजाते हुए अपनी बूढी छड़ी 

अगर तुझमें 'आतिशकोई आग है
जला कर दिखा दे कोई फुलझड़ी

ہمیشہ ہی مجھ کو رہی ہڑبڑی 
کہیں پرس چھوٹا کہیں پر گھڑی 

تری یاد کے ایک جھونکے سے پھر 
مری نیند آنکھوں کی چھت سے اڑی 

کبھی وقت بھی باںدھ پاؤں یوں ہی 
کلائی پے باندھی ہے جیسے گھڑی 

کہ دریا سمندر کا قیدی ہوا 
روانی ہی اس کی بنی ہتھکڑی 

دسمبر کے جیسا ترا ہجر ہے 
ہوئے چھوٹے دن اور راتیں بڑی 

ٹہلتا رہا اپنے کمرے میں دکھ 
بجاتے ہوئے اپنے بوڑھی چھڑی 

سہارا فقط اپنے سایے کا تھا
سہی دھوپ ہم نیں کڑی سے کڑی 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मेरे होटों को छुआ चाहती है


मेरे होटों को छुआ चाहती है
ख़ामुशी! तू भी ये क्या चाहती है ?
मेरे रस्ते से हटा चाहती है
दिल की दीवार गिरा चाहती है
मेरे कमरे में नहीं है जो कहीं
अब वो खिड़की भी खुला चाहती है
ज़िन्दगी! गर न उधेड़ेगी मुझे
किसलिए मेरा सिरा चाहती है
सारे हंगामे हैं परदे पर अब
फ़िल्म भी ख़त्म हुआ चाहती है
कब से बैठी है उदासी पे मिरी
याद की तितली उड़ा चाहती है
नूर मिट्टी में ही होगा उनकी
‘जिन चरागों को हवा चाहती है’
मेरे अन्दर है उमस इस दरजा
मुझमें बारिश-सी हुआ चाहती है
भोर आई है इरेज़र की तरह
शब की तहरीर मिटा चाहती है
आसमां में हैं सराबों-सी वो
जिन घटाओं को हवा चाहती है
चाँद का फूल है खिलने को फिर
शाम अब शब को छुआ चाहती है
फिर न लौटेगी मिरी आँखों में
नींद रंगों-सी उड़ा चाहती है
सारी दुनिया ही पिघल के ‘आतिश’
मेरे पैकर में ढला चाहती है