सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

सोन मछली-कहानी

एक शह्र था जिसमें थोड़ी सी दिल्ली, थोड़ी मुंबई, थोडा बनारस, थोडा कलकत्ता, थोडा पटना, इत्यादि ठीक वैसे ही थे जैसे दिल्ली में थोडा पटना, थोडा कलकत्ता, थोडा बनारस इत्यादि हैं। उस शह्र में शायद बिहार का या उत्तर प्रदेश का या शायद मध्यप्रदेश का एक लड़का था, जो शायद आई ए एस, या आय आय टी, या शायद एम् बी बी एस की तैयारी कर रहा था। वह तैयारी करता जा रहा था, परीक्षा देता जा रहा था, लेकिन क़िस्मत हमेशा उससे कतरा के निकल जा रही थी। उम्र एक ऐसी रेत-घड़ी है जिसे ऊपर की सारी रेत नीचे गिर जाने के बाद उल्टा नहीं किया जा सकता और यही बात उसे खाए जा रही थी। उसने हर तरीका आज़मा लिया था। मंदिरों में मन्नत मांग कर, पीपल पे धागे बाँध कर, दरगाह में चादर चढ़ कर, बाहों पर ताबीज़ बंधवा कर, चर्च में मोमबत्तियां जला कर वह थक चुका था। लेकिन किसी भी तरह के ख़ुदा से उसे मदद नहीं मिली थी। कुछ और टोटके भी किये थे उसने। होटल खाना खाने जाता तो एक रोटी बचा के ले आता और गौमाता को खिलाता था। मंगलवार को व्रत रखता था। कमरे से परीक्षा देने के लिए निकलता था तो ख़ुद ही दो गिलासों में पानी भर के दरवाज़े के दोनों तरफ़ रखता और दही चाट लेता ताकि परीक्षा अच्छी जाय। लेकिन कोई भी टोटका कारगर नहीं हुआ था। समय बीतता जा रहा था, किताबें बढती जा रही थीं और बाल झड़ते जा रहे थे और इन सबके बीच हर साल एक बार पीलिया भी मेहमान की तरह आ जाती थी कुछ हफ्ते रहती थी और उसकी सारी मेहनत बर्बाद करके चली जाती थी।
       इस बार जब वो गाँव गया तो पड़ोस में रहने वाली चाची ने उसे सलाह दी कि उसे मछलियों को आटे की गोलियां खिलानी चाहिए, इससे क़िस्मत साथ देती है। वह किसी भी तरह अपनी मेहनत का हाथ क़िस्मत के हाथ में देना चाहता था, इसलिए वह शह्र मछलियों को आटे की गोलियां खिलाने के इरादे के साथ लौटा। आते ही उसने आटा ख़रीदा घर में ले जा कर गूंथा और उसकी गोलियां बना कर निकल पड़ा उस नदी की ओर जो उस शह्र के ठीक बाहर से बहती थी। वह उस नदी पर बने पुल पर खड़े हो कर आटे की गोलियां पानी फेंकने लगा। उसकी आँखें पुल के नीचे बहती नदी की ओर थीं लेकिन नज़र भविष्य में कहीं दूर। जैसे ही उसकी नज़र भविष्य से लौटी तो उसे महसूस हुआ कि पुल नदी से इतना ऊपर है कि उसे यह दिखाई ही नहीं दे रहा है कि गोलियां मछलियाँ खा भी रही हैं या नहीं। पहले से ही निराश था वह, इस बात से उसकी निराशा और बढ़ गयी और वह बची हुई गोलियों को ले कर अपने कमरे की ओर लौटने लगा। लौटते हुए उसे अपने कमरे पर में ही मछलियाँ पालने और उन्हें आटे की गोलियां खिलाने का ख़याल आया। वह इस बात से भी खुश था कि उसे किसी नदी या तालाब तक जाने में समय बर्बाद नहीं करना पड़ेगा। वह तेज़ी से बढ़ चला क्यूंकि वह मछलियों को खरीदने में भी कुछ समय बचा लेना चाहता था।
वह सबसे पहले उस शह्र के प्रसिद्द मछली बाज़ार पहुंचा वहाँ हर तरफ़ मछलियां ही मछलियां थी, अधिकाँश मरी हुई। और जो ज़िंदा थीं उन्हें देख कर कहीं से ऐसा नहीं लग रहा था कि उन्हें पाला जाना चाहिए। वह बाज़ार उसे मछलियों का यातना गृह लगा।  वह तुरंत  बाज़ार से निकल गया और ढूंढते ढूँढ़ते एक दुकान ‘मत्स्य’ पर पहुंचा जहां पालने योग्य मछलियां और एक्वेरियम बेचे जा थे। वह अन्दर घुसा और मछलियों को देखने लगा। जैसे ही उसकी नज़र गोल्डफिश पर पड़ी वह मुग्ध हो गया और उसे अपलक देखने लगा। और गोल्डफिश भी चूँकि दूसरी मछलियों की तरह पलकों के बगैर पैदा हुई थी इसलिए वह लड़के को पहले से ही अपलक देख रही थी। लड़के ने फ़ैसला लिया कि वह गोल्डफिश ही लेगा। दुकानदार नें उसे उसे गोल्डफिश के रख रखाव के बारे में पूरी जानकारी दी। लड़के को यह जानकर बहुत अफ़सोस हुआ कि घर में पाली जाने मछली को आटे की गोलियां खिलाना ठीक नहीं है, बल्कि उसे विशेष किस्म का चारा खिलाना बेहतर होता है जो बाज़ार में मिलता है। उसने बड़ी निराशा से मछली को देखा और सोचा कि फिर क्या फायदा मछली को लेने का, ठीक तभी दुकानदार नें कहा ‘एंड सर..इट ब्रिंग्स यू गुड लक’। गुड लक...उसे और चाहिए भी क्या था गुड लक के सिवा, अब वो आटे की गोलियां खिला कर आये या बाज़ार से खरीदा गया चारा खिला कर।
घर आ कर उसने पढने की मेज़ पर फ़िश बाउल को रख दिया। जब वह मछली को चारा खिलाते हुए बाउल के खुले हुए मुंह से बाउल में झांकता तो उसे लगता है बाउल के अन्दर कोई छोटी-नदी है और उसकी आँखें एक पुल हैं जिस पर खड़ा हो कर वह नदी में झाँक रहा है। वह जैसे ही यह सोचता उसे शह्र बाहर बहती हुई नदी पर बना हुआ पुल याद और वह सोचता कि इस बार नहीं हुआ तो वो अपनी असफलता अपनी आस्थाओं, अपने अंधविश्वासों, अपने टोटकों और इस मछली समेत उसी नदी में कूद जाएगा।
वही नदी जो उस शह्र के बाहर बहती थी, एक गाँव के पास से हो कर गुज़रती थी। एक गाँव जिसमें थोडा मेरा गाँव था, थोडा आपका गाँव, और थोडा-थोडा सबका गाँव था। उसी गाँव में एक मछुवारा रहता था। मछुवारा अब सिर्फ मछुवारा रहा गया था। वह न पति बचा था, न बेटा। उसका एक बेटा था जो नदी में ही डूब के मर गया था। इसलिए उसमें पितृत्व का अंश भी नहीं बचा था। वह सिर्फ और सिर्फ मछुवारा था और कुछ नहीं। वह दिन भर मछली मारता और शाम को पास के क़स्बे में जा कर बेच आता था। जो पैसे मिलते थे उससे थोड़ी सी शराब पीता और थोडा खाना खाता, फिर अपनी झोपडी में आ कर सो जाता था। कई सालों से उसकी यही दिनचर्या थी। जिसमें कभी भी कोई बदलाव नहीं आया। उसकी झोपडी के बगल में एक लुहार की झोपडी थी। सुब्ह के आठ बजते ही वह वह काम पर लग जाता था। खट-खट.. झन्न-झन्न... फट-फट..घ्घर्रर्र.. कि आवाजों से ही मछुवारे की नींद खुलती थी। वह उठता और लोटा लेकर नदी की ओर जाने के लिए जब घर से निकलता तो उसे लोहार के घर के बाहर एक खटारा कार का ढांचा दिखाई देता, पता नहीं लोहार ने उसे तोड़ कर अब तक दूसरे औजारों में क्यूँ नहीं ढाला था, शायद उस कार के ढाँचे को वो स्टेटस सिम्बल की तरह रखता था। मछुवारा कार पर नज़र डालता तो उस का मन बुझ जाता वह अपने आप को उस कार के जैसा ही पाता जिस पर समय धूल की तरह जमता जा रहा है। वह उदास होता और नदी की तरफ चल देता। वह लौट कर लोटा घर रखता और अपना जाल लेकर फिर से नदी किनारे पहुँच जाता। भूख लगती तो मछली भूनता और खा लेता। भूख नहीं लगती तो सीधा रात को खाना खाता।
उसने दुसरे मछुवारों से सुन रखा था कि समुन्दर में बहुत बड़ी बड़ी मछलियां होती हैं और वो मगरमच्छों से भी अधिक ख़तरनाक होती हैं। उसे ख़याल आता कि नदी भी तो समंदर में जा के मिलती है किसी दिन कोई वैसी ही ख़तरनाक मछली उसके जाल में फंस गयी और फिर उसका जाल काट के उसको खा गयी तो क्या होगा? वह यह सोचते ही डर जाता और फिर सोचता कि अच्छा ही होगा मर जाएगा तो, जिंदा रहने में भी कौन सा बहुत मज़ा आ रहा है, कितनी नीरस है यह ज़िन्दगी, और फिर ज़िन्दगी भर उसने मछलियां मारी हैं अगर उसे कोई मछली मार देगी तो उसका पाप भी कट जाएगा। फिर पिछले ख़याल की दुम पकड़कर दूसरा ख़याल आता कि जब आज तक कोई ऐसी मछली इस नदी में नहीं आई तो अब क्या आएगी। एक रंगीन मछली तो दिखती नहीं है इसमें। वही मांगुर वही झींगा। यह सोचते ही उसके मन पर छाई हुई नीरसता बढ़ जाती। और फिर वह सोचता ही चला जाता। वही सोना, वही जागना, वही लोहार, वही खटपट, वही नदी, वही रास्ता, वही गाँव, वही त्यौहार, त्योहारों में शहरों से गाँव लौटने वाले वही लोग, वही ज़िन्दगी। एक दिन भी ऐसा नहीं जिसमें अचानक कुछ बदलाव आया हो, और उसकी नीरसता ख़त्म हुई हो। बस नीरसता..नीरसता ही नीरसता उसे चारो ओर नज़र आती।  वह यह सोच कर हैरान होता था कि गाँव के बाक़ी लोगों में यह नीरसता क्यों नहीं थी। अगर उसका परिवार होता तो क्या वह भी बाक़ी लोगों जैसा खुश होता? लेकिन जैसे ही उसे महसूस होता कि परिवार होने पर वह खुश होता तो वह उदास हो जाता।
यह नीरसता बरसों से उसके मन पर छाई थी। उसके आस पास बरसों से कुछ भी नया नहीं हो रहा था। अगर कुछ नया होता भी था तो ठाकुर की साहब के घर की सफ़ेदी जैसा कुछ जो उसके अवसाद को और बढाता ही था। हाँ गाँव में बच्चे पैदा होते थे लेकिन उसने पहले भी देखा था बच्चों को पैदा होते हुए बढ़ते हुए। गाँव में लोग मरते भी थे लेकिन किसी के मरने से क्या नीरसता में कमी आ सकती है। वैसे भी उसने तो अपनी बीवी-बच्चे तक को मरते देखा था। जन्म और मरने की ये घटनाएं तक उसकी नीरसता को दूर नहीं कर पाती थीं। अलबत्ता बढ़ा ज़रूर देती थीं। जब भी कोई जन्म लेता या मरता तो वह सोचने लगता कि वह कितना बार जन्मा होगा और किस किस रूप में ? कभी कभी खुद ही अंदाज़ा लगाता कि कम से एक आध करोड़ बार तो उसका पुनर्जन्म हुआ ही होगा। फिर वह सोचता कि फिर तो वह एक आध करोड़ बार मरा भी होगा। उफ़.. क्या चक्कर है.. वही पैदा होना वही मर जाना.. वह इतनी बार जन्म लेने और मृत्यु के बारे में सोच कर ही ऊब जाता और अपनी आत्मा पर तरस खाता कि उसे कितनी ऊबन का सामना करना पड़ता होगा। लेकिन साथ ही वह यह भी सोचता कि आत्मा को अगर बातें और ऊबन याद रहतीं तो ख़ुद उसे भी पिछले जन्म की और पिछले के पिछले जन्म की बातें याद होतीं। और जब उसे कोई पिछला जन्म नहीं याद आता तो  वह यह सोचकर निश्चिन्त हो जाता कि आत्मा की याददाश्त कमज़ोर होती है, इस कारण बार बार जन्म लेने और मरने के बावजूद वह ऊबती नहीं होगी। उसे हर बार मरना और जन्म लेना नया ही लगता होगा। 
एक बार मुछुवारा जब बहुत ऊब गया तो उसने मरने की ठान ली। ऐसा नहीं था कि उसने पहली बार मरने की ठानी थी। इसके पहले भी एक बार बहुत ऊब कर वह मरने की कोशिश करके चुका था। मरने की कोशिश के साथ साथ उसने अपने मोक्ष की भी व्यवस्था की थी। उसने सोचा था की अगर वह नदी में कूद के जान दे दे तो उसकी लाश को मछलियां खा जाएँगी और इस तरह मछलियों को मारने का उसका पाप कट जाएगा। वह एक बड़े से पुल से नदी के ठीक बीच में कूदा था उसका अंदाज़ा था कि नदी के ठीक बीच में कूदने से वह चाह कर भी नदी पार नहीं कर पायेगा। लेकिन नदी में डूबते ही जब उसे घुटन महसूस होने लगी तो वह नदी पार करने की कोशिश करने लगा। आधे रस्ते में जब वह थक के चूर होकर फिर से डूबने लगा तो उसने मदद के लिए आवाज़ लगायी। आवाज़ ने जल्द ही एक मददगार ढूंढ लिया जिसने जल्द ही मछुवारे को बचा लिया। हम जब नदी में उतारते हैं तो नदी से निकलते हुए थोड़ी सी नदी साथ हमारे साथ हो लेती है। मछुवारा पानी में भीगा हुआ घर लौटा। लोहार उसे रोज़ देखता था लेकिन दिन भर मछली मारने के बावजूद मछुवारा कभी भीगा हुआ घर नहीं लौटा था बस कुछ छींटे उसके कपड़ों पर पड़े होते थे। लोहार नें जब भीगे होने के वजह जाननी चाही तो मछुवारे नें सच-सच बता दिया कि वह ज़िन्दगी से ऊब कर आत्महत्या करने गया था। लोहार ने उसे सलाह दी की उसे मछलियों को आटे की गोलियां खिलानी चाहिए इससे उसकी क़िस्मत बदल सकती है। लोहार नें अपने दरवाज़े के बाहर पड़े कार के ढाँचे की तरफ इशारा करते हुए मछुवारे को बताया कि वह भी हर चीज़ से ऊब गया था लेकिन एक पंडित की सलाह पर उसने मछलियों को आटे की गोलियां खिलाईं और उसकी क़िस्मत ही बदल गयी। साथ ही उसने मछुवारे से पूछा कि है क्या गाँव में कोई दूसरा घर जिसके दरवाज़े पर कार हो? ढांचा ही सही। मछुवारा निरुत्तर था। लेकिन निरुत्तरता के पीछे वह सोच रहा था कि मछुवारा अगर मछली से दोस्ती कर लेगा तो मरेगा क्या, बेचेगा क्या, कमाएगा क्या और खायेगा क्या?
आत्महत्या के पिछले असफल प्रयास को मछुवारा भूला नहीं था और इस बार उसनें मरने का दृढ निश्चय किया हुआ था। उसकी दृढ़ता एक पत्थर में बदल गयी थी। उसने तय किया था कि इस बार पानी में कूदने से पहले वह अपने आप से एक पत्थर बाँध लेगा। इससे अगर पानी में घुटन भी होने लगेगी तो वह ऊपर नहीं आ पाएगा। वह पुल पर पहुंचा उसने आस पास गुज़रते हुए लोगों को गुज़र जाने दिया। इससे पहले कि कोई दूसरा आता उसने रस्सी का एक सिरा पत्थर में बांध दिया और दूसरा सिरा ख़ुद से बाँध लिया। उस समय उसके मन में एक बात आई कि रस्सी अगर किसी केबल जैसी निकली और जीवन का प्रवाह उसकी और से पत्थर में हो गया तो? ज़िंदा हो जाने के बाद उसे डूबता हुआ देख कर क्या पत्थर उसे बचाएगा? यह सोच कर कि यह मरते वक़्त आने वाले बेहूदा ख़यालों में से एक ख़याल है उसने तुरंत उस ख़याल को झटक दिया। उसने पत्थर को नदी की तरफ़ लटका दिया। फिर कूदने से पहले एक लम्बी सी सांस ली, जीवन के आख़िरी घूँट की पी और उसके बाद नदी में कूद गया। पहले नदी में पत्थर गिरा और तेज़ी से नीचे चला गया। फिर मछुवारा गिरा और तल की ओर जाने लगा। मछुवारा जैसे जैसे नीचे की और जा रहा था उसे नदी का बहाव कम होता महसूस हो रहा था। बहाव के साथ ही उसकी आख़िरी ली हुई सांस भी कम होती जा रही थी। वह सोच रहा था की अभी ये बहाव एक दम रुक जाएगा और चारो तरफ सिर्फ घुटन होगी कि ठीक तभी उसके सामने एक सोन मछली आ गयी। सोन मछली यानी गोल्ड फिश। अचानक मछुवारे के अन्दर रोमांच भर गया उसके अन्दर की बोरियत बरसों की नीरसता जैसे पानी में घुलने लगी। नदी के अनंत पानी में। और वह अपने आप को पत्थर से आज़ाद करने की कोशिश करने लगा।

-स्वप्निल तिवारी

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