गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

नज़्म/نظم

काली रात है
काली रात पे रंग नहीं चढ़ता है कोई
झिलमिल झिलमिल करते तारे
सुर्ख़ अगर हो जाएँ भी तो
किस की नज़र में आएंगे ये
चाँद ही होता
सुर्ख़ रंग उस पर फबता भी।
काली रात है
काली रात पे रंग नहीं चढ़ने वाला है
मैंने अपनी नब्ज़ काट कर
अपना लहू बर्बाद कर दिया...
کالی رات ہے
کالی رات پہ رنگ نہیں چڑھتا ہے کوئی
جھلمل جھلمل کرتے تارے
سرخ اگر ہو جائیں بھی تو
کس کی نظرمیں آئینگے یہ یہ
چاند ہی ہوتا
سرخ رنگ اس پر پھبتا بھی ...
کالی رات ہے
کالی رات پہ رنگ نہیں چڑھنے والا ہے
میں نے اپنی نبض کاٹ کر
اپنا لہو برباد کر دیا....
-swapnil tiwari-

1 टिप्पणी:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

खुदकुशी वैसे भी ज़ाया होती है... कमाल की नज़्म है. आपकी नज्में वैसे भी हमेशा से प्यारी रही हैं मेरी!