गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

तेरी आहट की धूप आती नहीं है


मेरे घर में न होगी रौशनी क्या
नहीं आओगे इस जानिब कभी क्या?

उदासी एक तो तुहफ़ा है उसका
मसल देगा समय ये पंखुड़ी क्या?

चहकती बोलती आँखों में चुप्पी
इन्हें चुभने लगी मेरी कमी क्या ?

ख़ुद उसका रंग पीछा कर रहे हैं
कहीं देखी है ऐसी सादगी क्या?

मुकम्मल चाहिए हर चीज़ हमको
वग़रना रौशनी क्या तीरगी क्या

लिपटती हैं मेरे पैरों से लहरें
मुझे पहचानती है ये नदी क्या

मैं इस शब से तो उकताया हुआ हूँ
सहर दे पाएगी कुछ ताजगी क्या ?

फक़त इक दस्तख़त से तोड़ डाला?
वो रिश्ता क़ुदरतन था कागज़ी क्या..!

तेरी आहट की धूप आती नहीं है
समा’अत* भी मेरी कुम्हला गयी क्या

ख़मोशी बर्फ सी ‘आतिश’ जमीं थी
नज़र की आंच से वो गल गयी क्या?


समा’अत-सुनने की शक्ति