सोमवार, 30 दिसंबर 2013

उदासी से सजे रहिये/اداسی سے سجے رہئے -ghazal

उदासी से सजे रहिये
कोई रुत हो हरे रहिये
सभी के सामने रहिये
मगर जैसे छिपे रहिये
किसी दिन हाथ आयेगा
त’अक्कुब में लगे रहिये
जो डूबी है सराबों में
वो कश्ती ढूंढते रहिये
वो पहलू जैसे साहिल है
तो साहिल से लगे रहिये
पड़े रहना भी अच्छा है
मुहब्बत में पड़े रहिये
भंवर कितने भी प्यारे हों
किनारे पर टिके रहिये
समय है गश्त पर हर पल
जहां भी हों छिपे रहिये
ख़ुदा गुज़रे न जाने कब
ख़ला में देखते रहिये
रज़ाई खींचिए सर तक
सहर को टालते रहिये
न जाने कब सहर हो जाय
मुसलसल जागते रहिये
न कट जाये पतंगों सा
फ़लक को देखते रहिये
वो ऐसे होंट हैं के बस
हमेशा चूमते रहिये
यही करता है जी ‘आतिश’
कि अब तो बस बुझे रहिये

اداسی سے سجے رہئے 
کوئی رت ہو ہرے رہئے 

سبھی کے سامنے رہئے 
مگر جیسے چھپے رہئے 

جو ڈوبی ہے سرابوں میں 
وو کشتی ڈھونڈھتے رہئے 
  
وہ  پہلو جیسے ساحل ہے 
تو ساحل سے لگے رہئے 

پڑے رہنا بھی اچّھا ہے 
محبّت میں پڑے رہئے 

بھنور کتنے بھی پیارے ہوں 
کنارے پر ٹیکے رہئے 

سمے ہے گشت پر ہر پاک 
جہاں بھی ہوں چھپے رہئے

خدا گزرے نہ جانے کب 
خلا میں دیکھتے رہئے 

رضائی کھینچیے سر تک 
سحر کو ٹالتے رہئے 

نہ  جانے کب سحر ہو جاۓ 
مسلسل جاگتے رہئے 

نہ کٹ جائے پتنگوں سا 
فلک کو دیکھتے رہئے 

وہ ایسے ہونٹ ہیں کے بس 
ہمیشہ چومتے رہئے 

یہی کرتا ہے جی 'آتش'
کہ اب تو بس بجھے رہئے

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

मेरी ग़ज़लें.. मेरी आवाज़

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

aisi achchhi soorat nikli pani ki-ghazal


ऐसी अच्छी सूरत निकली पानी की
आँखें पीछे छूट गयीं सैलानी की

कैरम हो, शतरंज हो या फिर इश्क़ ही हो
खेल कोई हो हमने बेईमानी की

दीवारों पर चाँद सितारे ले आये
बच्चों ने की भी तो क्या शैतानी की

क़ैद हुई हैं आँखें ख़ाब-जज़ीरे पर
पा कर एक सज़ा-सी काले पानी की

चाँद की गोली रात ने खा ही ली आखिर
पहले तो शैतान ने आनाकानी की

जलते दिये सा इक बोसा रख कर उसने
चमक बढा दी है मेरी पेशानी की

मैं उसकी आँखों के पीछे भागा था
जब अफ़वाह उड़ी थी उनमें पानी की

जब भी उसको याद किया हम बुझ बैठे
‘आतिश’ हमने अक्सर ये नादानी की

aisi achchhi soorat nikli pani ki
aaNkheN piichhe chhoot gayiiN sailani ki

kairam ho, shatranj ho ya fir ishq hi ho
khel koi ho hamne be-iimani ki

diwaroN par chaaNd sitare le aaye
bachchoN ne ki bhi to kya shaitani ki

Qaid huii haiN aaNkheN khab-jaziire par
pa kar ek saza-sii kale pani ki

chaaNd ki goli raat ne kha hi li aakhir
pahle to shaitan ne aanakani ki

jalte diye sa ik bosah rakh kar usne
chamak badha di hai meri peshani ki

maiN uski aaNkhoN ke piichhe bhaaga tha
jab afawaah udi thi unmeN pani ki

jab bhi usko yad kiya hum bujh baithe
‘aatish’ hamne aksar ye naadani ki

By - Swapnil Tiwari 'Aatish'

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

مسافر! تری تاک میں ہیں دھندھلکے/मुसाफ़िर ! तिरी ताक में हैं धुंधलके - ग़ज़ल


कहीं खो न जाना ज़रा दूर चल के
मुसाफ़िर ! तिरी ताक में हैं धुंधलके

मिरा नींद से आज झगडा हुआ है
सो लेटे हैं दोनों ही करवट बदल के

इसी डर से चलता है साहिल किनारे
कहीं गिर न जाये नदी में फिसल के

अजब बोझ पलकों पे दिन भर रहा है
अगरचे तिरे खाब थे हलके हलके

जताते रहे हम, सफ़र में हैं लेकिन
भटकते रहे अपने घर से निकल के

अँधेरे में मुबहम* हुआ हर नज़ारा
मिली एक दूजे में हर शय पिघल के

ज़माने से सारे शरर चुन ले ‘आतिश’
यही तो अनासिर* हैं तेरी ग़ज़ल के

मुबहम- अस्पष्ट अनासिर - तत्व


کہیں کھو نہ جانا ذرا دور چل کے 
مسافر! تری تاک میں ہیں دھندھلکے 

مرا نیند سے آج جھگڑا ہوا ہے 
سو لیٹے ہیں دونو ہی  کروٹ  بدل کے

اسی ڈر سے چلتا ہے ساحل کنارے 
کہیں گر ن جائے ندی میں پھسل کے

عجب بوجھ پلکوں پے دن بھر رہا ہے 
اگرچہ ترے خواب تھے ہلکے ہلکے 

جتاتے رہے ہم سفر میں ہیں لیکن 
بھٹکتے رہے اپنے گھر سے نکل کے 

زمانے سے سارے شرر چن لے 'آتش'
یہی تو عناصر ہیں  تیری غزل کے 
 

-- 
Regards
Swapnil Kumar Tiwari
08879464730

शनिवार, 31 अगस्त 2013

प्रिज़्म और पिरामिड


प्रिज़्म में इक उदासी भरी
दुबली-पतली किरन, ऐसे दाख़िल हुई
जैसे बाहर न आयेगी अब
प्रिज़्म दिखने में तो इक पिरामिड सा ही होता है
रौशनी का बदन लेकिन ऐसा नहीं
बना कर ममी जिसको रक्खे वहाँ..
प्रिज़्म के सब फलक कोशिशें कर के भी
जब बना ही न पाये किरन को ममी
तो वो हंसने लगी और
हँसते हुए अपनी सतरंगी चादर हवा में उड़ाने लगी...

बुधवार, 28 अगस्त 2013

हमेशा ही मुझको रही हड़बड़ी/ ہمیشہ ہی مجھ کو رہی ہڑبڑی-ghazal

हमेशा ही मुझको रही हड़बड़ी
कहीं पर्स छूटा कहीं पर घडी

कभी वक़्त भी बाँध पाऊँ यूँ ही
कलाई पे बाँधी है जैसे घड़ी

तिरी याद के एक झोंके से फिर
मिरी नींद आँखों कि छत से उड़ी

कि दरिया समंदर का क़ैदी हुआ 
रवानी ही इसकी बनी हथकड़ी

दिसंबर के जैसा तिरा हिज्र है 
हुए छोटे दिन और रातें बड़ी 

सहारा फक़त अपने साये का था 
सही धूप हमने कड़ी से कड़ी

टहलता रहा दिल के कमरे दुःख
बजाते हुए अपनी बूढी छड़ी 

अगर तुझमें 'आतिशकोई आग है
जला कर दिखा दे कोई फुलझड़ी

ہمیشہ ہی مجھ کو رہی ہڑبڑی 
کہیں پرس چھوٹا کہیں پر گھڑی 

تری یاد کے ایک جھونکے سے پھر 
مری نیند آنکھوں کی چھت سے اڑی 

کبھی وقت بھی باںدھ پاؤں یوں ہی 
کلائی پے باندھی ہے جیسے گھڑی 

کہ دریا سمندر کا قیدی ہوا 
روانی ہی اس کی بنی ہتھکڑی 

دسمبر کے جیسا ترا ہجر ہے 
ہوئے چھوٹے دن اور راتیں بڑی 

ٹہلتا رہا اپنے کمرے میں دکھ 
بجاتے ہوئے اپنے بوڑھی چھڑی 

سہارا فقط اپنے سایے کا تھا
سہی دھوپ ہم نیں کڑی سے کڑی 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मेरे होटों को छुआ चाहती है


मेरे होटों को छुआ चाहती है
ख़ामुशी! तू भी ये क्या चाहती है ?
मेरे रस्ते से हटा चाहती है
दिल की दीवार गिरा चाहती है
मेरे कमरे में नहीं है जो कहीं
अब वो खिड़की भी खुला चाहती है
ज़िन्दगी! गर न उधेड़ेगी मुझे
किसलिए मेरा सिरा चाहती है
सारे हंगामे हैं परदे पर अब
फ़िल्म भी ख़त्म हुआ चाहती है
कब से बैठी है उदासी पे मिरी
याद की तितली उड़ा चाहती है
नूर मिट्टी में ही होगा उनकी
‘जिन चरागों को हवा चाहती है’
मेरे अन्दर है उमस इस दरजा
मुझमें बारिश-सी हुआ चाहती है
भोर आई है इरेज़र की तरह
शब की तहरीर मिटा चाहती है
आसमां में हैं सराबों-सी वो
जिन घटाओं को हवा चाहती है
चाँद का फूल है खिलने को फिर
शाम अब शब को छुआ चाहती है
फिर न लौटेगी मिरी आँखों में
नींद रंगों-सी उड़ा चाहती है
सारी दुनिया ही पिघल के ‘आतिश’
मेरे पैकर में ढला चाहती है

बुधवार, 31 जुलाई 2013

यू टर्न - नज़्म

ये रस्ता
जो सीधा नज़र आ रहा है
जिसे नाम देते हैं हम ज़िन्दगी का
इसी रास्ते में छुपे हैं कई मोड़
जैसे किनारे लगी झाड़ियों में छिपा सांप कोई
यही मोड़ अचानक कहीं से निकल कर
फुंफकारते हैं
अगर बच गये हम, तो उनकी इनायत
वगरना फिर आगे कोई 'कट' नहीं है
जहां हाथ देकर, के यू टर्न ले लें..

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

عجب نقشہ ہے دیکھو میرے گھر کا/अजब नक़्शा है देखो मेरे घर का- ग़ज़ल


अजब नक़्शा है देखो मेरे घर का
हर इक खिड़की पे मंज़र है सहर का
मिरे हालात बेहतर हो चले हैं
भरोसा कर लिया था इस ख़बर का
मिरे सामान में शामिल है मिट्टी
इरादा है समन्दर के सफ़र का
खड़ी थी वादियों में एक लडकी
पहन कर कोट इक यादों के फ़र का
पहाड़ों से समंदर तक खिंचा है
ये दरिया है कोई टुकड़ा रबर का
परिंदा शाख़ पे माज़ी के बैठा
किसी की याद है कोटर शजर का
बहारो! चादरें ले आओ इनकी
बदन उघडा हुआ है हर शजर का
कोई जिग्सा पज़ल है दुनिया सारी
मैं इक टुकड़ा हूँ, पर जाने किधर का
हरी क़ालीन सी इक लॉन में थी
और उसपे फूल था इक गुलमोहर का
बुझी आख़िर में सारी आग ‘आतिश’
भले ही दोष था बस इक शरर का


عجب نقشہ ہے دیکھو میرے گھر کا 
ہر اک کھڑکی پے  منظر ہے سحر کا 

مرے سامان میں شامل ہے مٹی 
ارادہ ہے سمندر کے سفر کا 

مرے حالات بہتر ہو چلے ہیں 
بھروسہ کر لیا تھا اس خبر کا

کھڑی تھی وادیوں میں ایک لڑکی 
پہن کر کوٹ اک یادوں کے فر کا 

پہاڑوں سے سمندر تک  کھنچا ہے
 یہ دریا ہے کوئی ٹکڑا ربر کا 

پرندہ شاخ پے ماضی کے بیٹھا 
کسی کی یاد ہے کوٹر شجر کا 

بہارو! چادریں لے آؤ انکی 
بدن اگھڑا ہوا ہے ہر شجر کا 

کوئی جگسا پزل ہے ساری دنیا 
میں اک ٹکڑا ہوں پر جانے کدھر کا 

بجھی آخر میں ساری آگ 'آتش'
بھلے ہی دوش تھا بس اک شرر کا 

सोमवार, 29 जुलाई 2013

रोना आये तो - नज़्म

रोना आये
तो जी भर कर रो लेना तुम
आँखों में
काग़ज़ होते हैं
जिनपे खाब लिखे होते हैं
अश्कों को गर रोकोगे तुम बहने से
वो आँखों में भर जायेंगे
धीरे धीरे
वो सब कागज़
जिन पर ख़ाब लिखे होते हैं
गल जायेंगे
रोना आये
तो जी भर कर रो लेना तुम..!

एक पुल पर/ ایک پل پر - nazm


वो एक पुल था
जहां मिला था
मैं आख़िरी बार तुमसे जानां
मुझे हमेशा की तरह
पुल के उस ओर जाना था मैं जिधर से
नदी को जाते हुए निहारूं
मगर तुम्हें पुल का वो ही हिस्सा
ज़ियादा भाया हमेशा जैसे
जिधर से तुम डूबते हुए
आफ़ताब को देख सकती थी
वहीं पे डूबी थी अपने रिश्ते की आख़िरी नब्ज़
वो एक पुल
जो मिला रहा था
नदी के इक तट को दूसरे से
वहीं मैं तुमसे अलग हुआ था..

وہ ایک پل تھا
جہاں ملا تھا 
میں آخری بار تم سے جاناں 
مجھے ہمیشہ کی طرح 
پل کے اس اور جانا تھا میں جدھر سے 
ندی کو جاتے ہوئے نہاروں 
مگر تمہیں پل کا وہ ہی حصّہ 
زیادہ بھیا ہمیشہ جیسے 
جدھر سے تم ڈوبتے ہوئے 
آفتاب کو دیکھ سکتی تھی 
وہیں پے ڈوبی تھی اپنے رشتے کی آخری نبض 
وہ ایک پل جو 
ملا رہا تھا 
ندی کے اک تٹ کو دوسرے سے 
وہیں میں تم سے الگ ہوا تھا

गुरुवार, 30 मई 2013

ख़ुदकुशी से पहले

दरीचे बंद कर डाले हैं सारे
मगर बस इस क़दर कोई नज़ारा
नज़र आये न बाहर से
कोई झांके तो कुछ भी देख ना पाये
मगर थोड़ी जगह मिल जाये
मुट्ठी भर हवा को आने जाने की
न सुन पाये कोई भी शख्स ये आवाज़ गोली की
तो मर जाने पे जब ये जिस्म सड़ने पर तुला हो
हवा के हाथ लोगों तक ख़बर पहुंचे
लगा के कुण्डी भीतर से
रखी हैं मेज़ कुर्सी सामने दरवाज़े के मैंने
कि शक हो गर किसी को
कि मैं घर आज सिर्फ़ और सिर्फ़ मर जाने को लौटा हूं
तो वो भीतर न आ पायें
कम अज़ कम मेरे मरने तक
सो मैंने फ़ोन को भी एक लम्बी नींद दे दी है
पहुँच से सबकी बाहर
लबों पर उंगलियाँ रख कर पड़ा है..
है स्लो मोशन में अब ये वक़्त
मिरी साँसें भी भारी हो रही हैं
मैं नर्वस हो रहा हूँ
बस इक गोली जो हो सकती है सीधा सर के पार
कि फंस सकती है सर ही में, मेरे उलझे ख़यालों में
न इतना सोचता मैं तो
बहुत आसान था मरना
ये सारे इन्तिज़ाम
मुझमें इक शक इक नया डर ले के आये हैं
यही डर अब मुझे
लगता है मरने भी नहीं देगा..!

शुक्रवार, 24 मई 2013

शहरे-मुहब्बत

शहरे-मुहब्बत हम तन्हा हैं
नाम तुम्हारा सुना है हमने
रांझा-मजनूं के क़िस्सों में
और फ़रहाद के अफ़साने में
नक़्शे पर ढूँढा था तुमको..
नहीं मिले तुम
रांझे ने जब ज़हर चाट कर जाँ दे दी थी
तुमने भी क्या चुपके चुपके ज़ह्र खा लिया?
आह किसी ने सुनी तुम्हारी ?
या यूं ही बेनाम मरे तुम ?
मजनूं के पीछे पीछे सहराओं में चले गये क्या
सहराओं के ये सराब तुम ही तो नहीं हो ?
तोड़ा था फरहाद ने जब पत्थर का सीना
हांफ हांफ कर तुम क्या साँसें छोड़ चुके थे ?
शहरे-मुहब्बत.. बोलो कहीं से.. तुम ज़िंदा हो ?
शहरे-मुहब्बत.. शहरे-मुहब्बत… !
लोगों से इस भरे शह्र में
सचमुच हम बिल्कुल तनहा हैं…!

शनिवार, 18 मई 2013

फ़ुर्सत


बंद कमरा, मेरे माज़ी का
खुला है आज बरसों बाद
इस पुराने बंद कमरे की हवा
कब की पुरानी पड़ चुकी है
एक इक लम्हे पे दीमक लग चुकी है अब यहाँ
और हर इक याद पर
सीलन लगी है..
सोचता हूँ आज उसको
फोन कर लूँ
इस तरह कमरे की हर शय को
दिखा दूं धूप मैं..

शुक्रवार, 17 मई 2013

लफ्ज़ मुशायरा

लफ्ज़ का यह मुशायरा पिछले साल जाड़ों में हुआ था... इधर फिर से ब्लॉग पर सक्रिय  हुआ तो सोचा आप लोगों से शेयर किया जाय... 

बुधवार, 15 मई 2013

एक शह्र - नज़्म

सपाट चेहरों, उदास लोगों
से शह्र अपना बना हुआ है
यहाँ मैं बरसों से हूं मगर ख़ुद को इक अजनबी की तरह अकेला ही पा रहा हूं
यहाँ तो रस्ते तलक बचा के निगाह मुझसे निकल रहे हैं
कि जैसे मुझसे हुए मुख़ातिब तो खाइयों, खंदक़ों में फिसल पड़ेंगे,
इमारतें देखती हैं मुझको
कि जैसे मैं इश्तिहार हूँ एक फूहड़,
अनचाहा, सस्ता और भद्दा
कहीं नहीं हूँ नज़र में लोगों की आज भी मैं
बस इक ख़ला हूँ मैं उनकी ख़ातिर उग आये हैं हाथ पाँव जिसके
ख़लाओं को कोई नाम क्या दे?
सपाट चेहरों उदास लोगों
से शह्र अपना बना हुआ है
कभी भी हँसता न बोलता है
पड़ा ही रहता है एक अजगर की तरह जिसने
निगल ली हो भीड़ इक किसी दिन…!

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

एक ही ग़म तेरे जाने का रहा


एक ही ग़म तेरे जाने का रहा
एक दिन वो भी मगर जाता रहा
आज माँ का जी बहुत अच्छा रहा
आज दिन भर रेडियो बजता रहा
ख़ाब में खुलती रही खिड़की कोई
और उस खिड़की में वो आता रहा
लॉन में आया मुझे तेरा खयाल
मैं वहीं फिर देर तक बैठा रहा 
जह्न के कमरे में तेरा इक खयाल
रात भर जलता रहा बुझता रहा 
आख़िरश पीला ही पड़ना था अगर
दिल का कागज़ बेसबब सादा रहा 
एक नन्हा ख़ाब मेरी नींद में
पाँव उचकाकर तुझे छूता रहा 
इक उचटती सी नज़र उसकी लगी
और मैं बिखरा तो फिर बिखरा रहा

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

याद तुम्हारी शक्कर निकली


धूप के भीतर छुप कर निकली
तारीकी* सायों भर निकली

रात गिरी थी इक गड्ढे में
शाम का हाथ पकड़कर निकली

रोया..उससे मिलकर रोया
चाहत भेस बदल कर निकली

फूल तो फूलों सा होना था
तितली कैसी पत्थर निकली

सूत हैं घर के हर कोने में
मकड़ी पूरी बुनकर निकली

ताजादम होने को उदासी
लेकर ग़म का शॉवर निकली

ग़म के कितने चींटे आये
याद तुम्हारी शक्कर निकली

हिज्र की शब से घबराते थे
यार यही शब बेहतर निकली

जब भी चोर मिरे घर आये
एक हंसी ही ज़ेवर निकली

‘आतिश’ कुंदन रूह मिली है
उम्र की आग में जलकर निकली

*तारीकी - अँधेरा 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

उजाले पलटकर किधर जायेंगे


उजाले पलटकर किधर जायेंगे
फ़ज़ाओं में हर सू बिखर जायेंगे
 
यूँ ही ख़ाली-ख़ाली जो बीतेंगे दिन
तो हम इक उदासी से भर जायेंगे 

ख़ुदा तक पहुँचने की बाज़ीगरी?
ज़रा ध्यान टूटा कि मर जायेंगे
 
ये सब लोग जो नींद में है, अभी
कोई ख़ाब देखेंगे डर जायेंगे
 
कई दिन से मुझमे है इक शोर सा  
ख़मोशी से ये दिन गुज़र जायेंगे
 
यही जिस्म आया है ले कर इधर
इसी नाव से हम उधर जायेंगे
 
हमारा भी रस्ता उधर का ही है 
कहीं बीच में हम उतर जायेंगे
 
इस आवारगी को कहीं छोड़कर 
ये रस्ते किसी दिन तो घर जायेंगे
 
हम ‘आतिश’ हैं हमको नहीं कोई डर
जलाओगे तुम हम संवर जायेंगे

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

अपने ख़ाबों को इक दिन सजाते हुए


अपने ख़ाबों को इक दिन सजाते हुए
गिर पड़े चाँद-तारों को लाते हुए
एक पुल पर खड़ा शाम का आफ़ताब*
सबको तकता है बस आते जाते हुए
एक पत्थर मिरे सर पे आ कर लगा
कुछ फलों को शजर* से गिराते हुए
ए ग़ज़ल तेरी महफ़िल में पायी जगह
इक ग़लीचा बिछाते-उठाते हुए
सुब्ह इक गीत कानों में क्या पड़ गया
कट गया दिन वही गुनगुनाते हुए
ज़ात से अपनी ‘आतिश’ था ग़ाफ़िल बहुत
जल गया ख़ुद दिया इक जलाते हुए

आफ़ताब - सूर्य 
शजर - पेड़

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

ख़ाब मेरे घर बैठा है

नींद से कर बैठा है
ख़ाब मेरे घर बैठा है

अक्स मिरा आईने में
लेकर पत्थर बैठा है

एक बगूला* यादों का 
खा कर चक्कर बैठा है

उसकी नींदों पर इक ख़ाब
तितली बन कर बैठा है

रात की टेबल बुक करके 
चाँद डिनर पर बैठा है

जाता है बाहर भी
दिल में जो डर बैठा है

अँधियारा खामोशी से
ओढ़ के चादर बैठा है

आतिशधूप गयी कब की
घर में क्यूँ कर बैठा है?

बगूला - चक्रवात