शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मेरे होटों को छुआ चाहती है


मेरे होटों को छुआ चाहती है
ख़ामुशी! तू भी ये क्या चाहती है ?
मेरे रस्ते से हटा चाहती है
दिल की दीवार गिरा चाहती है
मेरे कमरे में नहीं है जो कहीं
अब वो खिड़की भी खुला चाहती है
ज़िन्दगी! गर न उधेड़ेगी मुझे
किसलिए मेरा सिरा चाहती है
सारे हंगामे हैं परदे पर अब
फ़िल्म भी ख़त्म हुआ चाहती है
कब से बैठी है उदासी पे मिरी
याद की तितली उड़ा चाहती है
नूर मिट्टी में ही होगा उनकी
‘जिन चरागों को हवा चाहती है’
मेरे अन्दर है उमस इस दरजा
मुझमें बारिश-सी हुआ चाहती है
भोर आई है इरेज़र की तरह
शब की तहरीर मिटा चाहती है
आसमां में हैं सराबों-सी वो
जिन घटाओं को हवा चाहती है
चाँद का फूल है खिलने को फिर
शाम अब शब को छुआ चाहती है
फिर न लौटेगी मिरी आँखों में
नींद रंगों-सी उड़ा चाहती है
सारी दुनिया ही पिघल के ‘आतिश’
मेरे पैकर में ढला चाहती है

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