शुक्रवार, 24 मई 2013

शहरे-मुहब्बत

शहरे-मुहब्बत हम तन्हा हैं
नाम तुम्हारा सुना है हमने
रांझा-मजनूं के क़िस्सों में
और फ़रहाद के अफ़साने में
नक़्शे पर ढूँढा था तुमको..
नहीं मिले तुम
रांझे ने जब ज़हर चाट कर जाँ दे दी थी
तुमने भी क्या चुपके चुपके ज़ह्र खा लिया?
आह किसी ने सुनी तुम्हारी ?
या यूं ही बेनाम मरे तुम ?
मजनूं के पीछे पीछे सहराओं में चले गये क्या
सहराओं के ये सराब तुम ही तो नहीं हो ?
तोड़ा था फरहाद ने जब पत्थर का सीना
हांफ हांफ कर तुम क्या साँसें छोड़ चुके थे ?
शहरे-मुहब्बत.. बोलो कहीं से.. तुम ज़िंदा हो ?
शहरे-मुहब्बत.. शहरे-मुहब्बत… !
लोगों से इस भरे शह्र में
सचमुच हम बिल्कुल तनहा हैं…!