मंगलवार, 17 सितंबर 2013

مسافر! تری تاک میں ہیں دھندھلکے/मुसाफ़िर ! तिरी ताक में हैं धुंधलके - ग़ज़ल


कहीं खो न जाना ज़रा दूर चल के
मुसाफ़िर ! तिरी ताक में हैं धुंधलके

मिरा नींद से आज झगडा हुआ है
सो लेटे हैं दोनों ही करवट बदल के

इसी डर से चलता है साहिल किनारे
कहीं गिर न जाये नदी में फिसल के

अजब बोझ पलकों पे दिन भर रहा है
अगरचे तिरे खाब थे हलके हलके

जताते रहे हम, सफ़र में हैं लेकिन
भटकते रहे अपने घर से निकल के

अँधेरे में मुबहम* हुआ हर नज़ारा
मिली एक दूजे में हर शय पिघल के

ज़माने से सारे शरर चुन ले ‘आतिश’
यही तो अनासिर* हैं तेरी ग़ज़ल के

मुबहम- अस्पष्ट अनासिर - तत्व


کہیں کھو نہ جانا ذرا دور چل کے 
مسافر! تری تاک میں ہیں دھندھلکے 

مرا نیند سے آج جھگڑا ہوا ہے 
سو لیٹے ہیں دونو ہی  کروٹ  بدل کے

اسی ڈر سے چلتا ہے ساحل کنارے 
کہیں گر ن جائے ندی میں پھسل کے

عجب بوجھ پلکوں پے دن بھر رہا ہے 
اگرچہ ترے خواب تھے ہلکے ہلکے 

جتاتے رہے ہم سفر میں ہیں لیکن 
بھٹکتے رہے اپنے گھر سے نکل کے 

زمانے سے سارے شرر چن لے 'آتش'
یہی تو عناصر ہیں  تیری غزل کے 
 

-- 
Regards
Swapnil Kumar Tiwari
08879464730

1 टिप्पणी:

chanchal sharma ने कहा…

so nyc sir jatate rhe hm safar m h lekin bhtkte rhe apne ghr se nikl k
bahut khoob