मंगलवार, 15 मार्च 2016

नदी की लय पे ख़ुद को गा रहा हूँ/ندی کی لے پہ خود کو گا رہا ہوں

नदी की लय पे ख़ुद को गा रहा हूँ
मैं गहरे और गहरे जा रहा हूँ

चुरा लो चाँद तुम उस सिम्त छुप कर
मैं शब को इस तरफ़ उलझा रहा हूँ

वो सुर में सुर मिलाना चाहती है
मैं अपनी धुन बदलता जा रहा हूँ

मुझे ये ख़्वाब आया था कि जग कर
मैं अपनी नींद पर पछता रहा हूँ

पड़ा हूँ ज़िन्दगी के जाम में मैं
मज़ा ये है पिघलता जा रहा हूँ

जज़ीरे पर अजब सी गूँज है ये
तेरी ही तरह मैं तन्हा रहा हूँ

छिड़कता जा रहा हूँ याद उसकी
शबे-फुरक़त ! तुझे महका रहा हूँ

न जाने ज़िन्दगी है क़र्ज़ किसका
अदा करते हुए घबरा रहा हूँ

यही मौक़ा है ख़ारिज कर दूँ खुद को
मैं अपने आप को दुहरा रहा हूँ 



ندی کی لے پہ خود کو گا رہا ہوں
میں گہرے، اور گہرے جا رہا ہوں

چُرا لو چاند تم اُس سمت چھپ کر
میں شب کو اس طرف الجھا رہا ہوں

وہ سُر میں سُر ملانا چاہتی ہے
میں اپنی دھن بدلتا جا رہا ہوں

مجھے یہ خواب آیا تھا کہ جگ کر
میں اپنی نیند پر پچھتا رہا ہوں

پڑا ہوں زندگی کے جام میں میں
مزہ یہ ہے پگھلتا جا رہا ہوں

یہی موقع ہے خارج کر دوں خود کو
میں اپنے آپ کو دہرا رہا ہوں

1 टिप्पणी:

Fursatnama ने कहा…

वाह! बड़े दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ा...."नदी की लय पे ख़ुद को गा रहा हूँ...." क्या ख़ूबसूरती है इस गायकी में! :)